ठन्डे नीम की छायाँ में जून की दोपहरी गला करती थी कभी
जून में ठीक वैसे ही दुपहरी गल-ती थी जैसे जामुन के पेड़ से जामुन गल कर गिरते थे, खजूर के पेड़ से खजूरे टपकते थे. काले काले करोंदे पका करते थे.

जून का महीना है
गर्मी अब उमस में बदल गई है. मानसून का इंतजार है. जून की दोपहरी उमस भरे वातारण में नीम के नीचे तो कभी पीपल-बरगद की घनी छाँव के नीचे गला करती थी. अब नीम बरगद कट गए दुपहरी नहीं कटती.गांव -गांव में पुराने बुजुर्ग ओटले पर बरगद की छांव में बैठ दोपहरी काटते थे. पूछने पर कहा करते थे दोपहरी गला रहे है. जून में ठीक वैसे ही दुपहरी गल-ती थी जैसे जामुन के पेड़ से जामुन गल कर गिरते थे, खजूर के पेड़ से खजूरे टपकते थे. काले काले करोंदे पका करते थे. कुछ इसी तरह पुराने लोग पसीने और उमस से भरी दुपहरी गलाया करते थे बीच बीच में चलने वाले हवाओं के झोंके से अपूर्व ठंडक मिला करती थी. बिजली और बिजली के फेन अस्सी के दशक के अंत तक ही गाँव में पंहुचे .
हाथों में हाथ से झलने वाले पंखे हुआ करते थे जो खजूर की या अन्य किसी पत्तियों से बना दिए जाते थे. दुपहरी में वहीं ओटले पर बैठकर बुजुर्ग बतियाते थे और युवा ताश पत्ती कूटते थे. तीन –दो- पांच और दहला पकड़ खेला करते. बड़ी बहस होती,हार जीत होती.लेकिन केवल वर्चुअल हार जीत होती थी दांव पर कोई पैसा नहीं लगा करता था.
गाँव में कुछ ही ओटले बचे है जहाँ बैठ कई बुजुर्ग आज भी पुराने दिनों को याद करते हैं और कहते हैं कि तब इतनी गर्मी नहीं हुआ करती थी . गांव के पास बहती हुई नदी की डाल में भरपूर पानी भरा रहता ,फरवरी मार्च तक तो वह बहती रहती थी .उसके बाद भी उसमें भरे हुए पानी से मनुष्य ,पशु- पक्षी सब फायदा लेते वहीं से पानी पीते थे. कभी किसी को पानी भरने दूर जाना नही पड़ता था.
यह मालवा ही था जहाँ डग -डग रोटी ,पग पग नीर था . जहां खोदो वहां पानी निकलता था .छोटे-छोटे बड़े नालों में झिरी कर गर्मी के दिनों में भी पानी पी लिया करते थे .आज जब बारिश होती है नदी नाले पानी से भर जाते हैं . लेकिन फरवरी आते -आते सब पानी उलीच कर खेतों में चला जाता है .पशुओं को और मनुष्य को पीने का पानी 500 फीट गहराई से निकालना पड़ता है .कई गांवों को तो वह भी नसीब नहीं है .आसपास से परिवहन कर ही अपनी प्यास बुझाते हैं.
गांव के बुजुर्ग 85 वर्ष के अमरा बा से चर्चा करने पर वह सब सिलसिले वार बताते हैं कि कैसे नदी सूखी ,तालाब का पानी गायब हुआ,छोटे बड़े नालों की तो बात ही मत करो दासाब.वे कहते हैं कि उन्हें अच्छी तरह याद है 1978 में पहली बार उनके गांव में ट्यूबवेल लगा था , खोदने वाली मशीन गांव के पटेल लेकर आए थे. गांव के लोग सुबह से तमाशबीन बन खड़े होकर बोरिंग होते हुए देख रहे थे .गांव के लोगों ने देखा एक मशीन आई भरभरा कर आवाज करती हुई पाइप से धरती में छेद करने लगी . जैसे जैसे अंदर पाइप जा रहे थे नई पाइप उसमें जोड़ी जा रही थी. देखते-देखते 4 घंटे में करीब 150 फीट गहराई पर ही पानी की ऐसी धारा फूटी की आगे मशीन का चलन दूभर हो गया. चारों तरफ खुशियां मनने लगी पटेल साहब ने तो ट्यूबवेल में पानी निकलने की खुशी में सभी को गुड़ खिलाया.
अगले 2 दिन में ही ट्यूबवेल में मोटर उतार दी गई और मोटर भरपूर पानी फेंकने लगी . कई दिन तक इस नए जल- तीर्थ को देखने आसपास के गांव के लोगों उमड़ पड़े और प्रेरणा लेकर इसी तरह के ट्यूबवेल लगाने लगे .अमरा बा याद करते हैं कि गांव में कई सक्षम लोगों ने और जो सक्षम नहीं थे कर्ज उठाकर टूयूबवेल लगाने की होड़ शुरू हो गई . देखते ही देखते आने वाले पांच सालों में लगभग गांव में कोई 1000 टयूब वेल लग चुके थे और ट्यूबवेल फेल भी होने लगे. धरती का सीना छलनी होने लगा .उन्हीं के गांव में ही नहीं आसपास के सभी गांव में 50-50 कोस तक यही होने लगा .अनाज की उपज बड़ी लेकिन पानी की समस्या खड़ी हो गई .लोगों ने जब ट्यूबवेल से काम नहीं चला ,नदी नालों में पाइपलाइन डालकर पानी खींचना शुरू किया .
अब चारों तरफ तबाही का मंजर है .फरवरी के बाद चौपाये ,पशु -पक्षी पानी को तरसते है .ओटले पर बैठ दुपहरी गला-ते 86 वर्षीय बुजुर्ग दूरदृष्टि वाले आदमी है , वह कहते हैं कि ऐसा ही रहा तो खेती तो छोड़ दो पीने के पानी के लिए भी गांव में बन्दूक चलेगी .
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