थियेटर की पर्सनलिटी डेवलपमेंट में बड़ी भूमिका है - बाल मंच के संस्थापक , वरिष्ठ रंगकर्मी - सतीश दवे
थियेटर , आर्ट फॉर्म या कहे अभिनय कला व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है ।जीवन में आने वाले उतार- चढ़ाव से लड़ने की क्षमता थिएटर पैदा करता है. रंगमंच की ओर नये जाने वाले युवाओ को सलाह है कि वह सोच समझकर रंगकर्म को चुने . क्योंकि रंगमंच का रास्ता आसान नहीं होता है , यह कला पूर्ण समर्पण मांगती है.
यह बात उज्जैन निवासी वरिष्ठ रंगकर्मी सतीश दवे ने अपनीबात पॉडकास्ट से चर्चा के दौरान कहीं . 73 वर्षीय सतीश दवे ना केवल बाल कलाकारों को रंगमंच की दीक्षा देते रहे हैं बल्कि उन्होंने 24 से अधिक नाटक लिखे हैं ,14 बाल नाटकों को लिखकर उनका मंचन करवाया है . साथ ही देश के विभिन्न नगरो में जयती पार्श्वनाथ,इतिहास का झरोखा ,चंदनबाला आदि लाइट एंड साउंड पर आधारित नाटकों का सफल मंचन किया है .उज्जैन और उज्जैन के आसपास के सैकड़ो होनहार बच्चों को उन्होंने ड्रामा सिखाया है.
बड़नगर नामक कस्बे में जन्मे सतीश दवे बताते हैं कि उनका जन्म कवि प्रदीप के मोहल्ले में ही हुआ तथा स्नातक की डिग्री करने के बाद नाटकों की ओर आकर्षित हुए . इसके बाद रायपुर में वरिष्ठ रंगकर्मी एम के रैना के एक वर्कशॉप में शामिल होने गए .उन्होंने बताया कि जब वे वर्कशॉप में शामिल होने गए तो प्रशिक्षको ने आश्चर्य व्यक्त किया कि नौकरी से छुट्टी लेकर नाटक सीखने कोई कैसे जा सकता है. इसके बाद सिलसिला चल पड़ा और वह बंसी कौल , वी बी कारंत , पनिक्कर जैसे नेशनल ड्रामा स्कूल के धुरंधर निर्देशकों के संपर्क में आए.
उन्होंने कहा कि उनके बालमंच के फर्स्ट बैच के सात बच्चे आज विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित नाम हैं . चर्चा के दौरान बताया कि उज्जैन के राजा भाऊ महाकाल का गोवा मुक्ति में जो अवदान था उसके ऊपर उन्होंने काफी रिसर्च करके एक भूला हुआ सेनानी नाटक लिखा है .इसके सफल 16 मंचन वे मालवा क्षेत्र के आसपास कर चुके हैं. बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि राजाभाऊ महाकाल ने 32 वर्ष की उम्र में गोवा मुक्ति आंदोलन के समय बलिदान दे दिया . लेकिन इतनी कम उम्र में उनके उनके डेडीकेशन और राष्ट्रभक्ति की ओर किसी का विशेष ध्यान नहीं गया .कहीं इतिहास में उनके बलिदान का विवरण नही आता है . राजाभाऊ महाकाल के बलिदान की कहानी सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं . इसी बलिदान की कथा से आकर्षित हो वे युवा पीढ़ी को उनके अवदान से परिचित कराने के लिए एक भूला हुआ सेनानी नाटक का मंचन लगातार कर रहे हैं.
बच्चों की नाटक संस्था बालमंच से आगे बढ़कर उन्होंने बड़े बच्चों को थियेटर सिखाने के लिए परिष्कृति नामक संस्था का गठन भी किया है . जिसका संचालन वे आज 73 वर्ष की उम्र में भी उतने ही उत्साह से कर रहे हैं जितने उत्साह से कोई वर्षों पहले वे बालमंच का किया करते थे. बाल मंच के बच्चों के साथ उन्होंने पर्यावरण से सरोकार रखते हुए पंचकोशी मार्ग व उज्जैन शहर के कई स्थानों पर पौधारोपण का कार्य भी किया है. उनका मानना है कि जल संरक्षण ,पौधारोपण और इसी तरह के अन्य सामाजिक सरोकार के कार्य मात्र दिखावे के लिए नहीं करना चाहिए .
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