राम कण कण में बसे हैं , रामलला युगों से लोगो के मन में विराजित है ...
आज जब रामलला अयोध्या के राम मंदिर में विराजित हो गए हैं तो हमारे मालवा अंचल और कमोबेश उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों में बसे मानस के राम बरबस याद आ रहे हैं
आज जब रामलला अयोध्या के राम मंदिर में विराजित हो गए हैं
हमारे मालवा अंचल और कमोबेश उत्तर भारत के ग्रामीण अंचलों में बसे मानस के राम बरबस याद आ रहे हैं।
रोज शाम दिया बाती के बाद दादाजी की पुकार - बाबू , दिया , लकड़ी की रेल और बाजोट लेकर खोली में आ जाओ, रामायण जी का पाठ शुरू करेंगे।
कोई सात आठ साल का बालक भक्ति भाव से कुश का आसन बिछाता। तिपाई पर लाल कपड़े में बंधी रामायण जी खोलकर आदर पूर्वक रेल पर रखता। सामने एक लोहे के खाली डिब्बे को उल्टा कर बनाया गये स्टैंड को रखता जिस पर घाँसलेट वाली ढिबरी जला कर रख दिया करते थे।
दादाजी हाथ मुंह धो कर अगरबत्ती लगा कर बैठ जाते। उस अगरबत्ती की सुगंध आज भी सभी के अवचेतन में रची बसी है। शुरू होती रामायण। एक चौपाई पढ़ते फिर उसका अर्थ सुनाते। दूसरी चोपाई और उसका अर्थ। फिर दोहा, ऐसे करते-करते जब तक बालक को उबासी नहीं आने लगती, नींद नहीं घेर लेती, दादा जी का रामायण पाठ पूरा नहीं होता था.
पोता मन ही मन सोचता यह आखरी दोहा होगा और अब बंद करेंगे। लेकिन रामायण का पाठ अनवरत चलता रहता। दादा हर चौपाई का अर्थ सुनाते - समझाते हुए वे यह समझते थे कि बेटा कुछ संस्कार ग्रहण कर रहा है।
बच्चों को इसका भान नहीं होता था। मानस के राम के साथ लगाव जो उन दिनों से शुरू होता आज तक रह रह कर मन में उभर आता है। कितने संस्कार लिए इसका तो कोई हिसाब तब की पीढ़ी के पास नही । लेकिन कुछ ग्रहण जरूर किया था जो आज भी काम आ रहा है।
घर-घर में बाँची जाने वाली गोस्वामी तुलसीदास रचित श्री रामचरितमानस निश्चित रूप से हमारे जनमानस की चेतना में गहरे तक पैठ बना चुकी है । उस पैठ से उपजी आस्था ने ही श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए जमीन तैयार की ।
घरों में दादाजी बालकांड से शुरू होकर लंका कांड तक जाते और जैसे ही पारायण समाप्त होता रामायण जी की पूजा होकर घर में ब्राह्मण भोज आयोजित किया जाता। कुछ समय के अंतराल के बाद फिर से रामायण का पारायण शुरू हो जाता । यह क्रम उन दिनों अनवरत चलता रहा था । उम्मीद करे ग्रामीण क्षेत्रो में आज भी होता होगा ।
तब के दादाजीयों का रामायण की चौपाई पढ़ना और फिर उसका अर्थ समझाना, निश्चित रूप से रामचरितमानस को आत्मसात करने के समान था। भगवान श्री राम का शिक्षा ग्रहण करने गुरु वशिष्ठ आश्रम में जाना ,वहां राक्षसों द्वारा मुनियों को सताए जाने पर उनका संहार करना। फिर वापस लौट कर सीता जी के स्वयंवर की कथा । राम का वन गमन, राम - केवट संवाद। एक - एक घटना का सजीव चित्रण आज भी स्मृतियों में घूम जाता है। मन में अमिट छाप छोड़ गया । किष्किंधा कांड , सुग्रीव, हनुमान और जामवन्त से भगवान श्री राम की भेंट । इसके बाद सेतु निर्माण और अंततः भगवान राम द्वारा रावण का संहार। हर घटना ऐसा लगता था हमारे सामने घट रही हो। लंका में राम रावण युद्ध के दौरान लक्ष्मण को शक्ति लगना और श्रीराम का करुणा से भर कर लक्ष्मण के लिए विलाप करना …. इतनी मार्मिक और सजीव व्याख्या क्या होगी कि एक छोटे बालक की आंखों से आंसू टप -टप गिर जाते।
अब इस उम्र में जाना कि कितनी शक्ति है गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में। जिस तन्मयता से और जिस उतार-चढ़ाव के साथ दादा इसका प्रस्तुतिकरण किया करते थे उसका भी प्रभाव था।
कच्चे मन पर असर और संवेदनशीलता के साथ ग्रहण करना निश्चित रूप से रामचरितमानस ग्रंथ की महानता को और पुख्ता करता है । भगवान श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। घर-घर में मर्यादा पुरुषोत्तम की कहानी का इस तरह से वाचन करना। नई - पुरानी पीढ़ी के लोगों को समझाया जाना, एक तरह से सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं का पालन करने की प्रेरणा देना ही था। आज जो कुछ थोड़ा बहुत मर्यादित चल रहा है वह उन्ही मर्यादा पुरषोत्तम द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखाओं के कारण चल रहा है। यह मानस के राम का उपकार नही तो और क्या, संसार कभी का नष्ट नहीं हो गया होता। भगवान राम के संदेश का प्रसारण हमारे जीवन में जिस तरह से रामचरितमानस के माध्यम से हुआ था, उसकी स्मृति घूम जाती है। आज भी गांव में कंही इस तरह से रामायण पढ़ते पंडितो, बुजुर्गों को देखते हैं तो मन को सुकून मिलता है। क्या कहें, हमने आधुनिक युग में अपनी सारी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दिया है। आने वाले समय में युगों तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम और रामचरित मानस पर ही उम्मीद टिकी है।
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