याद है उस फागुन की जब पहली बार मिली थी तुम Remember that fagun when i met you .....
प्रेम के अंकुर हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी फूटते ही हैं । किशोर से युवा होते होते बसंत और फागुन कुछ अलग ही , सन्दल की तरह महकते हैं । दुनिया स्वप्निल लगती है
याद है उस फागुन की
जब पहली बार मिली थी तुम
रंगों में सराबोर ।
तुम्हारे ऊपर खिले रंग ही देखे थे
तब तुम्हारा रूप नही ।
तुम्हारी देहयष्टि से ही
आकर्षित हो मुड़ा था मैं
रंग रूप छोड़ उसी में बंध गया ।
चुपके से तुमने भी तो
आंखों से कुछ कहा था ,
मैंने सुन भी लिया ।
साहस कर गुलाल लगाने
आगे हाथ बढाया था
तुम पीछे हट गई ।
गुलाल तो नही लगा पाया
नयनो की स्वीकृति पर ही
सन्तोष कर लिया ।
कुछ इसी तरह व्यक्त हुआ था
क्षणिक फागुनी प्रेम ।
बात उन दिनों की है जब कॉलेज में पढ़ रहे थे । किशोर से जवानी की तरफ कदम बढ़ रहे थे ।मन में कई सपने थे । सपने हमेशा अपनी हैसियत से ऊपर के देखे जाते । सपने पूरे हो या ना हो लेकिन सदैव तात्कालिक सुख देते है ।
यादों का भी एक अलग ही मिजाज होता है .किस लहर पर सवार होकर कहां पहुंच जाएं बता नहीं सकते . मनुष्य का मस्तिष्क जाने कितनी , जाने कैसी कैसी यादें अपने साथ लेकर चलता है । किसी गीतकार ने लिखा है न कि " मेंरे संग -संग आया तेरी यादों का मेला " ।
किशोर और युवा के बीच का यह एक ऐसा समय होता है जो फिर से जीवन में लौटकर नहीं आता ।
उन दिनों साइकिल ब्रांड अगरबत्ती पहले पहल मार्केट में आई थी । सुगंध की खोज में आजमाया । अगरबत्ती की खुशबू उन दिनों भक्ति भाव की बजाए जवानी की मादकता को ही बढ़ा रही थी । साथ ही नये -नये आये पौण्ड्स साबुन से नहाकर पूरा दिन महकता था ।
यह सपने ही थे जो उस दौरान जीवन में महके । उनकी स्मृति आज भी गुदगुदा जाती है । आस-पड़ोस और कॉलेज में रंगीन परिधानों में सजी परियॉ । कुछ ऐसे लगता कि यदि ये कही मिल जाए तो जीवन सफल हो जाए ।
पर यह सपने क्षणिक थे । आए और आकर चले गए । साथ भी क्षणिक था , जो पीछे छूट गया । ऐसा नही है कि कंही कोई कहानी नही बनी पर अंततः कदम वापस खींचना पड़े । पुरानी पीढ़ी हदें नही तोड़ पायी दायरे में ही रही ।
दायरे से बाहर नही निकला ,
शर्मीले हिंदुस्तानी की तरह प्रेम किया ।
जब भी बाहर झांका
दुनिया हसीन दिखी
यह नही कि
ललचाया नही !
मन दौड़ा ,
पर किसी की पुकार पर,
लौट आया ।
प्रेम क्या है सोचा नही
अनायास मिला भी नही।
मिल गया होता तो
क्या परिणीति होती ।
रीति रिवाज फ़र्ज़ की
वेदी पर चढ़ जाता ।
अच्छा ही हुआ ,
नही हुआ
आधा -अधूरा प्रेम ।
आलेख व कविता - हरिशंकर शर्मा
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